Tuesday 13 March 2018

बेटियों को सामाजिक क्षेत्र में बढ़ने की प्रेरणा बनी दिव्या


देश-विदेश में बसे भारतीय नागरिकों से मिले तीन हजार के आसपास नोमिनेशन फॉर्म्स, इतनी बड़ी संख्या में से मात्र तेईस महिलाओं का चयन, तेरह अलग-अलग वर्गों में सम्मानित करने के लिए. स्पष्ट है कि इन महिलाओं का अपने-अपने क्षेत्र में सराहनीय, अनुकरणीय योगदान रहा होगा. गुजरात के गांधीनगर में नौ मार्च को संपन्न 9th Udgam Women’s Achiever’s Awards समारोह में Golden Katar Army Wives Welfare Association (AWWA) की चेयरपर्सन डॉ० सोनिया पुरी, गुजरात एवं राजस्थान के British Deputy High Commissioner श्री जियोफ वैन द्वारा इन विशिष्ठ महिलाओं को सम्मानित किया गया. यह सम्मान समारोह गुजरात में पिछले बीस वर्षों से सक्रिय संस्था उदगम द्वारा आयोजित किया गया. उदगम विगत आठ वर्षों से लगातार अपने क्षेत्र में सक्रिय विशिष्ठ महिलाओं को सम्मानित करती आ रही है. इन सम्मानित महिलाओं में युवा चेहरा दिव्या गुप्ता सबके लिए प्रेरणास्त्रोत के रूप विशेष उल्लेखनीय रहा. अपने इस सम्मान को दिव्या ने सभी सामाजिक कार्यकर्ताओं, विशेष रूप से बेटियों को समर्पित करते हुए कहा कि इससे लड़कियों को सामाजिक क्षेत्र में कार्य करने की प्रेरणा मिलेगी. दिव्या गुप्ता मात्र चौदह वर्ष की उम्र से अपने गृह जनपद जालौन के नगर उरई में गहोई वैश्य मंच के साथ जुड़कर सामाजिक क्षेत्र में सक्रिय हो गई थी. इस मंच के द्वारा दिव्या ने गरीब किन्तु होनहार बच्चों की शिक्षा के लिए धनराशि तथा अन्य आवश्यक मदद जुटाने का कार्य किया. इन बच्चों में से ग्यारह बच्चे दिव्या की लगन, मेहनत और प्रेरणा से इंजीनियरिंग, अध्यापन के क्षेत्र में अपना कैरियर बनाने में सफल रहे. बचपन से ही सामाजिक क्षेत्र के प्रति दिव्या की सजगता, जागरूकता कम नहीं हुई वरन आयु बढ़ने के साथ-साथ यह संवेदनशीलता और बढ़ती गई.




दिव्या अपने जीवन का उद्देश्य निर्धारित कर चुकी थी. खुद को समाजसेवा के लिए समर्पित करने का मन बना चुकी दिव्या ने अपनी शिक्षा को भी सामाजिक क्षेत्र से जोड़ते हुए सामाजिक कार्य में परास्नातक डिग्री हासिल की. अध्ययन करते-करते उन्होंने अपने आपको पूरी तरह से समाजसेवा के लिए संकल्पित कर दिया था. अपने विद्यार्थी जीवन में भी उनके द्वारा लगातार समाजसेवा में सक्रियता देखने को मिलती थी. एक तरफ दिव्या का अध्ययन चल रहा था, दूसरी तरफ उनके सामाजिक कार्य भी निर्बाध रूप से चल रहे थे. जहाँ भी उन्हें अपने होने का एहसास होता अगले क्षण वे वहां सबके बीच खुद को उपस्थित पाती. अपने साथियों में भी दिव्या इस कारण लोकप्रिय रही कि वह निस्वार्थ भावना से सबके कष्टों का निवारण करने चौबीस घंटे तत्पर रहती. समाजसेवा का जूनून दिव्या के सिर चढ़ कर बोल रहा था ऐसे में वे आर्थिक संसाधनों की परवाह किये बिना बस लोगों की सहायता में लगी हुई थीं. स्वास्थ्य, शिक्षा, महिला, बाल-विकास, पेयजल, आपदा नियंत्रण, पर्यावरण सुरक्षा आदि बिन्दुओं पर दिव्या लगातार जमीनी काम करती रहीं. 




वर्ष 2003-04 से लेकर वर्ष 2015-16 तक का समय दिव्या के सामाजिक सक्रिय होने की परीक्षा लेता रहा. इस दौरान प्राकृतिक आपदाएँ पूरे देश में अपना कहर ढाने में लगी थीं और दिव्या इन आपदाओं और नागरिकों के बीच सुरक्षा कवच बन खड़ी रही. 2004 की असम की बाढ़ हो, 2005 की सुनामी की तबाही हो, इसी वर्ष गुजरात में बाढ़ का प्रकोप रहा हो या कश्मीर में भूकंप का आना रहा हो सभी जगह दिव्या निसंकोच, निर्भीकता से लोगों की मदद करने को तत्पर रही. इसके अलावा उत्तर प्रदेश में बाढ़ से परेशान लोगों के बीच (2007), बिहार की बाढ़ से घिरे लोगों की सहायता (2007), बंगाल के चक्रवात (2009) में लगभग 4500 परिवारों के मध्य उनकी मदद को लगातार बने रहना, उत्तराखंड की बाढ़ की भीषण तबाही (2013) में लोगों को मदद, उनका पुनर्वास, खाद्य सुरक्षा, स्वास्थ्य सम्बन्धी व्यवस्था के साथ-साथ उनको जागरूक करने के कई-कई आयामों पर दिव्या एकसाथ काम कर रही थी. कुछ इसी तरह का उनका कार्य 2014 में कश्मीर में आई बाढ़ के समय देखने को मिला. उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, गुजरात, तमिलनाडु, असम, बिहार, उत्तराखंड, राजस्थान, आंध्र प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, अंडमान-निकोबार द्वीप समूह, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र आदि राज्यों के बाढ़, भूकंप, सुनामी, चक्रवात आदि प्राकृतिक आपदाओं से पीड़ित देशवासियों ने दिव्या का सहयोग तो प्राप्त किया ही इसके अलावा जब वर्ष 2015 में नेपाल जबरदस्त भूकंप झटकों से कराह उठा तो वहाँ के भूकम्प-पीड़ित नागरिकों की मदद को दिव्या आगे आई. वे काफी लम्बे समय तक अपने अनुभव का लाभ नेपाल के नागरिकों, प्रशासन को प्रदान करती रहीं.




सामाजिक क्षेत्र में वास्तविक कार्य करने वाली दिव्या खुद को मीडिया से दूर रखने का भरसक प्रयास करती हैं. उनका कहना है कि मजबूर लोगों की, असहाय लोगों की, जरूरतमंद लोगों की मदद करना, उनको सहायता देना, उनकी समस्या का समाधान करना ही उनका वास्तविक उद्देश्य है. कई बार मिलती प्रसिद्धि वास्तविक कार्य करने में अवरोधक का कार्य करने लगती है. इस तरह की पावन सोच के साथ दिव्या समाजसेवा में सक्रिय रहने के साथ-साथ लोगों को जागरूक करने का भी कार्य करती रहती हैं. इस बारे में उनका कहना है कि लोगों की सहायता करने के साथ-साथ लोगों को इसके लिए भी जागरूक किया जाये कि भविष्य में किसी तरह का संकट आने पर, समस्या आने पर वे किसी दूसरे का इंतजार न करें वरन अपनी मदद करने के साथ-साथ अन्य दूसरों की मदद कर सकें. जिस-जिस क्षेत्र में दिव्या सक्रिय हैं उनके अनुभवों के आधार पर लोगों को जागरूक कर रही हैं. इस कार्य में सरकारी, गैर-सरकारी, स्थानीय नागरिकों, शैक्षणिक संस्थानों आदि के सहयोग से दस हजार से ज्यादा लोगों को वे आकस्मिक आपदाओं से, समस्याओं से निपटने के सन्दर्भ में प्रशिक्षत कर चुकी हैं.




दिव्या का मानना है कि लोगों में समाजसेवा करने का भाव होता है किन्तु उसे सही दिशा न मिल पाने के कारण ऐसे लोग या तो मायूस हो जाते हैं अथवा सामाजिक क्षेत्र के प्रति अनभिज्ञ बने रहते हैं. समाज के लोगों में, विशेष रूप से युवाओं में समाजसेवा के प्रति और सजगता लाने की सोच के साथ, उनमें सकारात्मकता जगाने के उद्देश्य से दिव्या ने वर्ष 2016 में Volunteer Indians (www.volunteerindians.org) नामक वेबसाइट का निर्माण किया. इसके माध्यम से उनका उद्देश्य देश के विभिन्न हिस्सों में लोगों को सामाजिक कार्यों से जोड़ना, उचित लोगों तक सामाजिकता के अवसर उपलब्ध करवाना, वास्तविक लोगों तक सार्थक मदद पहुँचाना रहा है. पिछले एक वर्ष में दिव्या इस वेबसाइट के माध्यम से लगभग चार सौ स्वयंसेवियों को एक मंच पर ला चुकी हैं जो समाज के विभिन्न क्षेत्रों में सत्रह हजार घंटों के आसपास का समय समाज को दे चुके हैं. यह मंच न केवल गुजरात में बल्कि महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, दिल्ली आदि में सक्रिय है. इस मंच के द्वारा ऐसे स्वयंसेवियों द्वारा वर्सोवा बीच की सफाई, फुटपाथ स्कूल का सञ्चालन, सड़क किनारे रह रहे बच्चों की शिक्षा और भोजन की व्यवस्था, स्वास्थ्य जागरूकता, यातायात सञ्चालन में सहयोग, जरूरतमंद लोगों को वस्त्र-वितरण आदि कार्य किये गए.



वर्तमान में दिव्या यूनिसेफ के साथ मिलकर गुजरात के ग्रामीण क्षेत्रों में स्वच्छ भारत मिशन की योजना, उसके निर्देशन, निरीक्षण आदि का कार्य कर रही हैं. अपनी भावी योजनाओं को साझा करते हुए दिव्या ने बताया कि यथाशीघ्र उनके द्वारा ग्रामीण महिलाओं के लिए एक बड़ा प्रोजेक्ट लाने का विचार है. इसके अंतर्गत ग्रामीण महिलाओं को कूड़ा-कचरा, अपशिष्ट आदि के प्रबंधन से आमदनी के प्रति प्रशिक्षित किया जायेगा. दिव्या ने अपने सामाजिक कार्यों की प्रतिबद्धता को निखारने में ऑक्सफेम, वाटर ऐड, एक्शन ऐड, यूनिसेफ, आदि के साथ-साथ विभिन्न राज्य सरकारों के अनेक विभागों के सहयोग को धन्यवाद दिया. उनका कहना था कि इनके द्वारा समय-समय पर कार्य करने के अवसर ने उनके भीतर समाजसेवा का जज्बा बनाये रखा और उन्हें समाज के लोगों की सहायता करने को प्रेरित किया.


Monday 26 September 2016

लगनशील बेटी को मिली सहायता

लैंगिक समानता के लिए जागरूकता अभियान के रूप में सम्पूर्ण देश में साईकिल यात्रा करते बिहार के नवयुवक राकेश कुमार सिंह की यात्रा का पड़ाव उरई, जनपद जालौन बना. 20 सितम्बर 2016 की शाम लोगों से मिलते-मिलाते, संवाद स्थापित करते हुए राकेश की साईकिल उरई के विभिन्न स्थानों, चौराहों पर रुक कर नागरिकों से संवाद स्थापित करने का सूत्र बन रही थी. महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार, बच्चियों के साथ होती छेड़छाड़ की घटनाएँ, कन्या भ्रूण हत्यायें, भेदभाव, लैंगिक असमानता आदि विषयों पर चर्चाएँ की जा रही थी. जागरूकता अभियान के इसी क्रम में राकेश की साईकिल उरई शहर के रेलवे स्टेशन की ओर चल दी. शाम रात में बदल चुकी थी. संक्षिप्त वैचारिकी के बाद जागरूक राकेश की दृष्टि स्टेशन के पूछताछ केंद्र की रौशनी में पढ़ती एक छोटी बच्ची की तरफ गई. वे सहजता-असहजता की स्थिति के साथ उस बच्ची के पास पहुँचे. वो छोटी बच्ची, दिव्या पूरी तन्मयता के साथ अपने स्कूल का कार्य करने में लगी हुई थी. उसी के पास उसकी छोटी बहिन खेलने में मगन थी. 

दिव्या अपनी छोटी बहिन के साथ, रेलवे स्टेशन पर 

राकेश को अपने सामने खड़े देखकर एक पल को वे दोनों कुछ सकुचाई सी किन्तु राकेश के वात्सल्यपूर्ण व्यवहार से उनका संकोच दूर हो गया. चन्द मिनट की बातचीत से पता चला कि वे दोनों बहिनें स्टेशन के पास ही किराये के मकान में अपनी माँ के साथ रहती हैं. घर में बिजली व्यवस्था न होने के कारण दिव्या स्टेशन के बाहर की रौशनी में आकर स्कूल में मिला अपना गृहकार्य पूरा करती है. माँ मजदूरी करती है, उसकी बहिन अभी पढ़ती नहीं है बस उसका साथ देने यहाँ चली आती है, पढ़ना उसे बहुत अच्छा लगता है, वे गरीब हैं, ऐसी कुछ बातें बताते हुए उस बच्ची ने राकेश की फोटो खींच लेने की बात पर अपना सिर सहमति में हिला दिया.
राकेश ने सहज भाव से दिव्या और उसकी बहिन की कुछ तस्वीरें अपने मोबाइल कैमरे से निकाल ली. शहर में अन्य जगहों पर चर्चा करते हुए राकेश देर रात शहर के अपने ठिकाने पर वापस लौटे. लौटते ही सबसे पहले राकेश ने उस बच्ची की तस्वीर उसके द्वारा मिली संक्षिप्त जानकारी के साथ सोशल मीडिया पर शेयर कर दी. संवेदनात्मक दृष्टि रखते हुए उस तस्वीर को राकेश के कई मित्रों सहित उरई तथा उरई से बाहर के कई जागरूक लोगों ने शेयर किया. मीडिया के कुछ साथियों ने उस खबर को वेबसाइट पर तो कुछ मित्रों ने समाचार-पत्रों में प्रकाशित किया. 

लैंगिक आज़ादी के लिए साईकिल यात्री राकेश कुमार सिंह द्वारा लगाई गई पोस्ट 

इस बीच 25 सितम्बर की शाम कुछ स्थानीय मित्रों ने खबर दी कि जिलाधिकारी जालौन संदीप कौर द्वारा उस बेटी को आर्थिक मदद करने के साथ-साथ आवास भी उपलब्ध करवा दिया गया है. इस बारे में जानकारी करने पर पता चला कि राकेश द्वारा सोशल मीडिया पर डाली गई खबर के लगातार शेयर होती रही और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के सामने पहुँची. वहाँ से आदेश होते ही जिला प्रशासन हरकत में आया और दिव्या के परिवार को मदद उपलब्ध करवाई गई. दिव्या की माँ मोनिका के नाम डूडा कॉलोनी में एक आवास आवंटित किया गया. इसके साथ-साथ दस हजार रुपये की आर्थिक मदद भी दी गई. इसके साथ ही उसे समाजवादी पेंशन योजना से लाभान्वित किये जाने का भी भरोसा दिया गया. 

जिलाधिकारी जालौन, संदीप कौर द्वारा सहायता 

दिव्या की माँ मोनिका ट्रेन में भीख माँगकर गुजारा करती है. उसके पति द्वारा उसको छोड़ दिया गया है. दिव्या की पढ़ाई में विशेष रुचि है. उनकी स्थिति जानने के बाद जिलाधिकारी ने उन्हें हरसंभव मदद देने का आश्वासन दिया है.

राकेश के प्रयास के साथ-साथ प्रदेश मुख्यमंत्री और जिलाधिकारी के कदम अनुकरणीय एवं सराहनीय हैं.  

Friday 6 November 2015

कुत्ते के मुँह में शिशु शव

जनपद जालौन के मुख्यालय उरई में कुत्ते के मुँह में एक शिशु का शव देखकर लोगों में खलबली मच गई. सूचना पर पुलिस ने शिशु शव को कब्जे में करके पोस्टमोर्टेम के लिए भेज दिया. स्वास्थ्य विभाग से संपर्क करने पर ज्ञात नहीं हो सका कि शिशु शव बालक का था या बालिका का. 

 इससे पहले भी उरई में कई घटनाएँ इस तरह की सामने आ चुकी हैं जिनमें कि भ्रूण अथवा शिशु शवों का मिलना होता रहा है किन्तु न तो स्वास्थ्य विभाग की तरफ से और न ही जिला प्रशासन की तरफ से कोई सख्त कदम उठाये गए हैं.

ऐसी घटनाओं के पीछे आशंका व्यक्त की जा रही है कि जनपद में अवैध रूप से संचालित नर्सिंग होम, अवैध रूप से संचालित अल्ट्रासाउंड मशीन आदि का इसमें हाथ है. कानपुर से मोबाइल अल्ट्रासाउंड मशीन आने की जानकारी कई बार स्वास्थ्य विभाग को बिटोली अभियान के संचालक डॉ० कुमारेन्द्र सिंह सेंगर द्वारा दी गई किन्तु स्वास्थ्य विभाग द्वारा इस ओर कोई ठोस कदम नहीं उठाये गए हैं.


चित्र व्हाट्सएप्प से प्राप्त हुए और खबर अमर उजाला में प्रकाशित हुई... 




Sunday 2 November 2014

शर्मसार करता परिदृश्य : भ्रूण लिंग जाँच और कन्या भ्रूण हत्या



ये अपने आपमें अत्यंत शर्मनाक है कि आधुनिकता और उत्तर-आधुनिकता की आदर्शवादिता दिखाने वाले समाज में खुलेआम भ्रूण लिंग जाँच जैसा कुकृत्य किया जा रहा है; गर्भ में बालिका की पहचान होने के पश्चात् उसका जीवन समाप्त किया जा रहा है. इससे भी अधिक शर्मनाक ये है कि इस तरह के कुकृत्यों में वो चिकित्सक भी सम्मिलित हैं जिनको समाज में भगवान का स्थान प्राप्त है. इधर हाल में देश की राजधानी में जिस तरह से खुलेआम वहाँ के नर्सिंग होम द्वारा एक महिला को अल्ट्रासाउंड सेंटर का पता बताया जाता है, जहाँ आसानी से भ्रूण लिंग जाँच की जाती है, तो ये कन्या भ्रूण हत्या निवारण की कोशिशों की गंभीरता को दर्शाता है. खुलेआम इस तरह के सेंटर के बारे में बताया जाना ये सिद्ध करता है कि इस तरह के आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों के हौसले कितने बुलंद हैं और इसके निरोध के लिए बने अधिनियम (PCPNDT Act) का कोई भी खौफ इनके मन-मष्तिष्क पर नहीं है. कमोवेश ये स्थिति अकेले दिल्ली में ही नहीं है वरन देश के बहुतायत भागों में है. लेकिन ये कहकर कि इस कानून की धज्जियाँ उड़ाने वाले, इसका मखौल बनाने वाले, भ्रूण लिंग जाँच करवाने वाले, कन्या भ्रूण हत्या करने/करवाने वाले सम्पूर्ण देश में हैं, दिल्ली के अथवा देश भर के ऐसे अपराधियों को नजरअंदाज़ नहीं किया जा सकता है, नज़रअंदाज़ किया भी नहीं जाना चाहिए. इसी के साथ सवाल खड़ा होता है तो इनको रोका कैसे जाए, इनके अपराध पर अंकुश कैसे लगाया जाये, इनकी कुप्रवृत्ति को समाप्त कैसे किया जाये. ऐसे सवालों का जवाब कई बार खुद ऐसे हालात ही बन जाते हैं. स्पष्ट है कि यदि कानून का ही डर होता तो देश भर में लिंगानुपात में भयंकर गिरावट देखने को न मिल रही होती. वर्ष २०११ की जनगणना में भले ही वर्ष २००१ की जनगणना के मुकाबले लिंगानुपात में किंचित मात्र सुधार होता दिखा है किन्तु ये भी संतुष्ट करने वाला नहीं कहा जायेगा क्योंकि इसी अवधि में शिशु लिंगानुपात में व्यापक कमी आई है.
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ऐसी स्थिति में जबकि लिंगानुपात में लगातार गिरावट देखने को मिल रही है, सरकारें बेटी बचाओ अभियान के द्वारा जागरूकता लाने में लगी हुई हैं, गैर-सरकारी संगठन और अनेक व्यक्ति अपने-अपने स्तर पर बेटियों के हितार्थ कार्य करने में लगे हैं इसके बाद भी स्थिति बद से बदतर होती जा रही है. इस विकृति से निपटने के लिए हर बार जन-जागरूकता की बात की जाती है किन्तु अब जबकि खुलेआम ऐसे सेंटर की जानकारी दिए जाने से लगता है कि जनता ने भी जागरूकता से किनारा करना शुरू कर दिया है. जनसहयोग के साथ-साथ प्रशासन को सख्ती से कार्य करने की जरूरत है. सरकारी, गैर-सरकारी चिकित्सालयों में इस बात की व्यवस्था की जाये कि प्रत्येक गर्भवती का रिकॉर्ड बनाया जाये और उसे समय-समय पर प्रशासन को उपलब्ध करवाया जाये. ध्यान देने योग्य ये तथ्य है कि एक महिला जो गर्भवती है, उसे नौ माह बाद प्रसव होना ही होना है, यदि कुछ असहज स्थितियाँ उसके साथ उत्पन्न नहीं होती हैं. ऐसे में यदि नौ माह बाद प्रसव संपन्न नहीं हुआ तो इसकी जाँच हो और सम्पूर्ण तथ्यों, स्थितियों की पड़ताल की जाये. यदि किसी भी रूप में भ्रूण हत्या जैसा आपराधिक कृत्य सामने आता है तो परिवार-डॉक्टर को सख्त से सख्त सजा दी जानी चाहिए. ऐसे परिवारों को किसी भी सरकारी सुविधा का लाभ लेने से वंचित कर दिया जाये, चिकित्सक का लाइसेंस आजीवन के लिए रद्द कर दिया जाये, ऐसे सेंटर्स तत्काल प्रभाव से बंद करवा दिए जाएँ और दंड का प्रावधान भी साथ में रखा जाये. 
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इतने सालों की जद्दोजहद से ये स्पष्ट हो चुका है कि बेटी होने पर किसी योजना का लाभ देने का मंतव्य, सरकारी योजनाओं से लाभान्वित किये जाने सम्बन्धी प्रयासों, कानूनी प्रक्रियाओं आदि से सुधार होने के आसार दिख नहीं रहे हैं. ऐसे में कुछ समय तक कठोर से कठोर क़दमों की जद्दोजहद किये जाने की जरूरत है. यदि ऐसा नहीं किया गया तो वो दिन दूर नहीं जब कि ऐसे धूर्त और कुप्रवृत्ति के चिकित्सकों के प्रतिनिधि घर-घर जाकर लोगों को भ्रूण लिंग जाँच-कन्या भ्रूण हत्या के लिए प्रेरित/प्रोत्साहित करेंगे. इसके साथ वह दिन भी दूर नहीं होगा जबकि बेटों के विवाह के लिए बेटियाँ मिलनी बंद हो जाएँगी और समाज एक तरह की कबीलाई संस्कृति में परिवर्तित हो जायेगा.
 
 
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Sunday 21 September 2014

बेटियों के लिए जागरूक होना ही होगा



          इंसानी कदम आधुनिकता के साथ अंतरिक्ष की ओर बढ़ते जा रहे हैं किन्तु ‘कन्या भ्रूण हत्या’ जैसा कृत्य उसको आदिमानव सिद्ध करने में लगा है। समाज में बच्चियों की गिरती संख्या से अनेक तरह के संकट, अनेक विषमताओं के उत्पन्न होने का संकट बन गया है। विवाह योग्य लड़कियों का कम मिलना, महिलाओं की खरीद-फरोख्त, जबरन महिलाओं को उठाया जाना, बलात्कार, बहु-पति प्रथा आदि विषम स्थितियों से इतर कुछ बिन्दु ऐसे हैं जिनको नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। समाज में महिलाओं की संख्या कम हो जाने से शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु महिलाओं की खरीद-फरोख्त होना, एक महिला से अधिक पुरुषों के शारीरिक संबंधों के बनने की आशंका, इससे यौन-जनित रोगों के होने की सम्भावना बनती है। चिकित्सा विज्ञान स्पष्ट रूप से बताता है कि लगातार होते गर्भपात से महिला के गर्भाशय पर विपरीत प्रभाव पड़ता है और इस बात की भी आशंका रहती है कि महिला भविष्य में गर्भधारण न कर सके। पुत्र की लालसा में बार-बार गर्भपात करवाते रहने से गर्भाशय के कैंसर अथवा अन्य गम्भीर बीमारियां होने से महिला भविष्य में माँ बनने की अपनी प्राकृतिक क्षमता भी खो देती है। इसके साथ ही महिला के गर्भाशय से रक्त का रिसाव होने की आशंका भी बनी रहती है, जिसके परिणामस्वरूप महिला के शरीर में खून की कमी होने से अधिसंख्यक मामलों में गर्भवती होने पर अथवा प्रसव के दौरान महिला की मृत्यु हो जाती है। इसके अतिरिक्त एक सत्य यह भी है कि जिन परिवारों में एक पुत्र की लालसा में कई-कई बच्चियों जन्म ले लेती हैं वहाँ उनकी सही ढंग से परवरिश नहीं हो पाती है। उनकी शिक्षा, उनके लालन-पालन, उनके स्वास्थ्य, उनके खान-पान पर भी उचित रूप से ध्यान नहीं दिया जाता है। इसके चलते वे कम उम्र में ही मृत्यु की शिकार हो जाती हैं अथवा कुपोषण का शिकार होकर कमजोर बनी रहती हैं।
सामाजिक प्राणी होने के नाते हर जागरूक नागरिक की जिम्मेवारी बनती है कि वो कन्या भ्रूण हत्या निवारण हेतु सक्रिय रूप से अपना योगदान दे। बेटियों को जन्म देने से रोकने वाली किसी भी प्रक्रिया का समाज में सञ्चालन होने से रोके। हम अपने-अपने परिवार के बुजुर्गों को ये समझाने का काम करें कि किसी भी वंश का नाम बेटियों के द्वारा भी चलता रहता है। उनको महारानी लक्ष्मीबाई, इंदिरा गाँधी का उदहारण देकर समझाना चाहिए। परिवार के इन बुजुर्गों के ये भी बताना होगा कि जिनके बेटे पैदा नहीं हुए उनके कार्यों से उनका नाम आज तक समाज में आदर के साथ लिया जा रहा है। ऐसे उदाहरणों के लिए स्वामी विवेकानंद, सरदार भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, सुभाष चन्द्र बोस, जवाहर लाल नेहरू आदि का नाम लिया जा सकता है। बेटे की चाह रखने वाले इन्हीं परिवारीजनों को समझाना चाहिए कि यदि समाज से बेटियाँ समाप्त हो जाएँगी तो फिर वंश-वृद्धि के लिए पुत्र जन्मने वाली बहू कहाँ से आएगी। हम अपने आसपास की, पड़ोस की, मित्रों-रिश्तेदारों की गर्भवती महिलाओं की जानकारी रखें, उनके बच्चे के जन्मने की स्थिति को स्पष्ट रखें। यदि कोई महिला गर्भवती है तो उसको प्रसव होना ही है (किसी अनहोनी स्थिति न होने पर) इसमें चाहे बेटा हो या बेटी। हम स्वयं में भी जागरूक रहें और स्वयं को और अन्य दूसरे लोगों गर्भस्थ शिशु की लिंग जाँच के लिए प्रेरित न करें। इधर देखने में आया है कि दलालों की मदद से बहुत से लालची और कुत्सित प्रवृत्ति के चिकित्सक अपनी मोबाइल मशीन के द्वारा निर्धारित सीमा का उल्लंघन करके भ्रूण लिंग की जाँच अवैध तरीके से करने निकल पड़ते हैं। हम जागरूकता के साथ ऐसी किसी भी घटना पर, मशीन पर, अपने क्षेत्र में अवैध रूप से संचालित अल्ट्रासाउंड मशीन की पड़ताल भी करते रहें और कुछ भी संदिग्ध दिखाई देने पर प्रशासन को सूचित करें। कई-कई जगह पर वैध रूप से पंजीकृत अल्ट्रासाउंड सेंटर्स द्वारा गर्भपात (कन्या भ्रूण हत्या) करने की घटनाएँ प्रकाश में आई हैं। हम सबका दायित्व बनता है कि इस तरह के सेंटर्स पर भी निगाह रखें। इसी के साथ-साथ जन्मी बच्चियों के साथ होने वाले भेदभाव को भी रोकने हेतु हमें आगे आना होगा। उनके खान-पान, रहन-सहन, पहनने-ओढ़ने, शिक्षा-दीक्षा, स्वास्थ्य-चिकित्सा आदि की स्थितियों पर भी ध्यान देना होगा कि कहीं वे किसी तरह के भेदभाव का, दुर्व्यवहार का शिकार तो नहीं हो रही हैं।
यदि इस तरह के कुछ छोटे-छोटे कदम उठाये जाएँ तो संभव है कि आने वाले समय में बेटियाँ भी समाज में खिलखिलाकर अपना भविष्य संवार सकती हैं। अभी से यह चेतावनी सी देना कि समाज में बच्चियों की संख्या भविष्य में कम होते जाने पर उनके अपहरण की सम्भावना अधिक होगी; ऐसे परिवार जो सत्ता-शक्ति से सम्पन्न होंगे, वे कन्याओं को मण्डप से उठा ले जाकर अपने परिवार के लड़कों के उनका विवाह करवा दिया करेंगे; बालिकाओं की अहमियत बढ़ जायेगी और सम्भव है कि बेटियों के परिवारों को दहेज न देना पड़े बल्कि लड़के वाले दहेज दें आदि कदाचित ठीक-ठीक नहीं जान पड़ता है। यह स्पष्ट है कि वर्तमान में महिला लिंगानुपात जिस स्थिति में है, महिलाओं को, बच्चियों को जिन विषम हालातों का सामना करना पड़ रहा है आने वाला समाज बेटियों के लिए सुखमय तो नहीं ही होगा। समाज के प्रत्येक क्षेत्र में महिलाओं को आदर्श रूप में प्रस्तुत करके बच्चियों के साथ-साथ उनके माता-पिता के मन में भी महिलाओं के प्रति आदर-सम्मान का भाव जाग्रत करना होगा और पुत्र लालसा में अंधे होकर बेटियों को मारते लोगों को समझाना होगा कि यदि आज बेटी को मारोगे तो कल बहू कहाँ से लाओगे?’
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Wednesday 10 September 2014

नाली में बहता मानव-भ्रूण : असंवेदनशील समाज, पाशविक मानसिकता



शहर में गंदे पानी का निकास करती नाली; कूड़ा-करकट, गंदगी, अन्य अपशिष्ट को अपने साथ बहाकर ले जाती नाली; सफाई के अभाव में बजबजाती नाली और इसी नाली में बहता मिलता है मानव भ्रूण. उत्तर-प्रदेश के बुन्देलखण्ड भूभाग का जनपद जालौन और उसका जिला मुख्यालय उरई, जहाँ कि जनपद स्तर के सभी प्रशासनिक अधिकारियों के आवास हैं, कार्यालय हैं; सभी बड़े राजनैतिक दलों के नेता-कार्यालय मौजूद हैं; राष्ट्रीय-प्रादेशिक-स्थानीय स्तर के समाचार-पत्रों के कार्यालय यहाँ हैं; इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की उपस्थिति भी यहाँ है, सरकारी, गैर-सरकारी बड़े-बड़े प्रोजेक्ट लेकर समाजसेवा करने वाली नामी-गिरामी गैर-सरकारी संस्थाएं भी यहाँ हैं, इसके बाद भी भ्रूण-हत्या जैसा अपराध होना, भ्रूण के नाली में बहाए जाने जैसी शर्मनाक घटना होना दर्शाता है कि अपराधी किस हद तक अपना मनोबल ऊँचा किये हुए हैं. नाली में भ्रूण मिलने की घटना मानवता को कलंकित करने वाली इस कारण से भी कही जा सकती है क्योंकि जहाँ ये भ्रूण पाया गया है वहाँ शहर के प्रतिष्ठित चिकित्सक का नर्सिंग होम है. समाज में कहीं भी भ्रूण-हत्या जैसी वारदात सामने आने पर प्रथम विचार कन्या भ्रूण हत्या का आता है, कुछ ऐसा ही इस घटना पर भी हुआ.
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नाली में सात माह के मानव भ्रूण की खबर मिलते ही सभी की आशंका कन्या भ्रूण हत्या को लेकर उपजी किन्तु ये उस समय लोगों के आश्चर्य की बात हो गई जबकि उन्हें पता चला कि नाली में मिला मानव भ्रूण बालक है. एकाएक उपजी लहर सी शांत हो गई; मीडिया के लिए स्टोरी नहीं; सामाजिक संस्थाओं के लिए आन्दोलन का मुद्दा नहीं आखिर भ्रूण बालक का है. क्या वाकई ये संवेदनशील मामला नहीं कि एक नर्सिंग होम के पास नाली में बहता हुआ सात माह का मानव भ्रूण मिलता है. सवाल यहाँ उसके बालक या बालिका होने का नहीं, सवाल मानव जाति की मानसिकता का है, मानवता का है. ये किसी तरह का अपराध नहीं है कि एक नर्सिंग होम के पास मानव भ्रूण मिलता है किन्तु इस बात की जाँच अवश्य होनी चाहिए कि आखिर वहाँ ये आया कैसे? ये आसानी से समझने वाली बात है कि इस भ्रूण हत्या में कन्या होना तत्त्व केन्द्र में नहीं है क्योंकि सात माह में किसी भी भ्रूण के लिंग की पहचान सहजता से हो जाती है. स्पष्ट है कि ये मामला कन्या भ्रूण-हत्या से सम्बंधित नहीं है. ऐसी स्पष्ट स्थिति के बाद प्रशासन को और तत्परता से वास्तविकता को सामने लाने का प्रयास करना चाहिए.
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संभव है कि ये मामला किसी अनब्याही माँ से जुड़ा हुआ हो, जिसका सामाजिक दबाव में, पारिवारिक दबाव में उसका गर्भपात करवाया गया हो? ऐसे में भी ये पता करने की आवश्यकता बनती है कि आखिर इस कृत्य में किस चिकित्सक ने मदद की है. ये एक आम शिक्षित व्यक्ति को भी पता है कि सात माह की अवस्था में चिकित्सकीय रूप से गर्भपात संभव-सुरक्षित ही नहीं है. ऐसे में ये जानना और भी आवश्यक हो जाता है कि ऐसा क्यों, कब, कहाँ और किसके द्वारा किया गया?
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एक सम्भावना ये भी बनती है कि ये किसी विवाहित महिला की ‘प्री मैच्योर डिलीवरी’ हो या फिर ‘मिसकैरिज’ जैसी कोई घटना हो जिसके लिए किसी चिकित्सक की मदद ली गई हो. यदि ऐसा है तब भी इस घटना को भुलाने योग्य नहीं माना जा सकता है क्योंकि सम्बंधित स्त्री को चिकित्सकीय सुविधा देने के बाद, उसकी मदद करने के बाद किसी भी चिकित्सक, सम्बंधित नर्सिंग होम आदि की जिम्मेवारी बनती थी कि वे उस भ्रूण का यथोचित निपटान करते. ऐसा न किया जाना और उसे नाली में बहा देना अमानुषिक कृत्य ही कहा जायेगा, जिसके लिए न सही कानूनी किन्तु सामाजिक दंड के भागी सम्बंधित लोग बनते ही हैं.
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समाज में कई बार किसी भीख मांगने वाली महिला के साथ, मानसिक विक्षिप्त महिला के साथ शारीरिक सम्बन्ध बनाये जाने की घटनाएँ, उनके गर्भवती होने की घटनाएँ भी सामने आई हैं. इस मामले में भी संभव है ऐसा ही कुछ हुआ हो और सम्बंधित गर्भवती महिला के साथ समुचित चिकित्सकीय देखभाल के अभाव में ऐसा कुछ हो गया हो. यदि ऐसा भी है तो ये हमारी सामाजिक व्यवस्था पर कलंक है जहाँ किसी भिखारिन, किसी मानसिक विक्षिप्त महिला को हवस का शिकार बना लिया जाता हो. ये कहीं न कहीं प्रशासनिक अक्षमता भी कही जाएगी कि उनके द्वारा आज भी ऐसे लावारिस लोगों को, अनाथ लोगों को संरक्षण, चिकित्सकीय सुविधाएँ दे पाना संभव नहीं हो सका है.
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यहाँ सवाल नाली में सात माह के भ्रूण के बालक या बालिका होने का नहीं है वरन मानव स्वभाव की मानसिकता का है. ये अपने आपमें सम्पूर्ण मानव जाति के लिए, मानवता के लिए शर्म का विषय तो है ही कि आधुनिकता में रचे-बसे समाज में आज भी भ्रूण-हत्याएं हो रही हैं किन्तु ये और भी कलंकित करने वाली घटना है कि एक भ्रूण नाली में बहते पाया जाता है. वास्तविकता क्या है इसे सामने आने में समय लगेगा, कहिये प्रशासनिक लीपापोती में सामने न भी आये किन्तु ये घटना दर्शाती है कि हम मानव आज भी जानवर ही बने हुए हैं. 
डॉ० कुमारेन्द्र सिंह सेंगर 
संयोजक-बिटोली 
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चित्र मीडिया-मित्रों के सहयोग से प्राप्त हुए. चित्रों की वीभत्सता को कम करने के लिए ही इनको एक आवरण प्रदान कर दिया गया है. ये घटना ७ सितम्बर २०१४ की है.